कई प्रदेशो को रोशन करने वाला गॉव खुद अंधेरे में,अब केवल किस्से कहानियों का हिस्सा बनकर रह गया।

कई प्रदेशो को रोशन करने वाला गॉव खुद अंधेरे में,अब केवल किस्से कहानियों का हिस्सा बनकर रह गया।
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देहरादून— चकराता– लोहारी विद्युत परियोजना ऊर्जा प्रदेश उत्तराखंड का एक गांव लोहारी जो अब केवल किस्से कहानियों का हिस्सा बनकर रह गया है। सरकार ने प्रदेश को रोशन करने के लिए बांध का निर्माण किया। लेकिन बांध की झील में समय लोहारी गांव के निवासी सरकार से मिलने वाली मुआवजा राशि से नाखुश है। राजकीय विद्यालय में रहने को मजबूर गांववासी, जंहा लाइट, पानी और शौचालय तक की व्य्वस्था नही वँहा रहने को मजबूर है लोहारी गांववासी।

_ 120 मेगावाट की व्यासी जल विद्युत परियोजना की झील में 630 मीटर पानी भरा जा चुका है। इसी के साथ परियोजना की टेस्टिंग का कार्य भी अब तेजी के साथ हो रहा है। लोहारी गांव छोड़ने के बावजूद ग्रामीण झील के किनारे बैठकर उन सुनहरे पलों को याद करते रहे, जो उन्होंने गांव के पंचायती आंगन, घर व खेत-खलिहानों में बिताए होंगे। यमुना नदी की तलहटी में बसे गांव लोहारी में डूबने से पहले चारों तरफ हरियाली और खेती होती थी। पंचायती आंगन में पर्व-त्योहारों पर होने वाले झेंता, रासो, हारुल व नाटियों लोकनृत्य हर किसी को थिरकने के लिए मजबूर कर देते थे। अब ग्रामीणों के पास सिर्फ यादें ही शेष हैं। बुजुर्गों के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। जिस गांव में उनकी कई पीढ़ि‍यां पली-बढ़ी हों, उससे बिछुड़ने की पीड़ा वो शब्दों में बयान नहीं कर पा रहे। लोहारी गांव के युवाओं का कहना है कि कोई भी सरकार ठीक से लोहारी गांव के दर्द को नहीं समझ पाई। हमारी मांग थी कि विस्थापन से पूर्व बसाया जाता नया गांव। लोहारी के बांध विस्थापितों का कहना है कि विस्थापन से पूर्व सरकार को एक अलग गांव बसाना चाहिए था, मगर सरकार ऐसा नहीं कर पाई। नतीजा परेशान ग्रामीणों को आनन-फानन में अपना सामान खुले आसमान के नीचे रखने को मजबूर होना पड़ा है। 1777.30 करोड़ की यह परियोजना धरातल पर तो उतर गई, मगर लोहारी का दर्द किसी ने नहीं समझा। सरकार ने मुआवजा बांटने का काम जरूर किया। लेकिन जमीनों की पैमाईश किस तरह से की गई, उसकी ग्रामीणों को कोई जानकारी नहीं है। सरकार को जमीन के बदले जमीन देनी चाहिए थी, लेकिन सिर्फ जमीन अधिग्रहण कर मुआवजा देकर ग्रामीणों को बेघर कर दिया गया। हमारे लिए कोई पुनर्वास की व्यवस्था नहीं है। इसलिए खुले आसमान के नीचे पड़े हैं।

 

Rupesh Negi

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